Saturday, May 7, 2011

अधूरा इन्साफ कचहरी में

कचहरी का खामोश नज़ारा,
इन्तजार करे जज का इशारा,
वर्षों से यह लटका केस,
नहीं हुआ निपटारा।

बाहर झुरमुट कान किए,
हाथों में दस्तावेज लिए,
फिर भागे वकील ढूंढने,
भीड़ पर नजरें किए।

शायद अब हो जाए फैसला,
जो लटका है सालों से,
घिरा ही रहता हूं वरना,
मैं रोज नए सवालों से।

किसी के चेहरे पर खुशी,
तो किसी पर गम लटके,
मुद्दतों से वो ही फैसला,
हो रहा जो फिर भटके।

नहीं जला अरमानों का,
सुलगा हुआ चिराग कोई,
वक्त का दुश्मन फिर दे गया,
दिल में जैसे आग कोई।

ऐसा होना था तो क्यों है,
यह इन्साफ अदालत का,
बेहतर होता यही फैसला,
सुथरा साफ अदालत का।

कौन कहे इस मुलक में,
आज़ाद घूम रहे हैं हम,
खुदवा कर तकदीर लकीरें,
बर्बाद घूम रहे हैं हम।

चलो यहां अब इस जहां को,
नया कुछ करके दिखाएं,
वतन के हम रखवालों को,
नमन करें और शीश झुकाएं।

करें जागरूक 'अनीस' मिलकर,
उभरते कण आवाम में,
बुलन्द आवाज में भरें चेतना,
इन्साफ के पैगाम में।

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